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गा॒य॒त्रं छन्दो॑ऽसि॒ त्रैष्टु॑भं॒ छन्दो॑ऽसि॒ द्यावा॑पृथि॒वीभ्यां॑ त्वा॒ परि॑ गृह्णाम्य॒न्तरि॑क्षे॒णोप॑ यच्छामि। इन्द्रा॑श्विना॒ मधु॑नः सार॒घस्य॑ घर्मं पा॑त॒ वस॑वो॒ यज॑त॒ वाट्। स्वाहा॒ सूर्य्य॑स्य र॒श्मये॑ वृष्टि॒वन॑ये ॥६ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

गा॒य॒त्रम्। छन्दः॑। अ॒सि॒। त्रैष्टु॑भम्। त्रैस्तु॑भ॒मिति॒ त्रैस्तु॑भम्। छन्दः॑। अ॒सि॒। द्यावा॑पृथि॒वीभ्या॑म्। त्वा॒। परि॑। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒न्तरि॑क्षेण। उप॑। य॒च्छा॒मि॒ ॥ इन्द्र॑। अ॒श्वि॒ना॒। मधु॑नः। सा॒र॒घस्य॑। घ॒र्मम्। पा॒त॒। वस॑वः। यज॑त। वाट् ॥ स्वाहा॑। सूर्य॑स्य। र॒श्मये॑। वृ॒ष्टि॒वन॑य॒ इति॑ वृष्टि॒ऽवन॑ये ॥६ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:38» मन्त्र:6


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर भी स्त्री-पुरुष का कैसा सम्बन्ध हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) परम ऐश्वर्ययुक्त पुरुष ! जैसे आप (गायत्रम्) गायत्री छन्द से प्रकाशित (छन्दः) स्वतन्त्र आनन्दकारक अर्थ के समान हृदय को प्रिय स्त्री को प्राप्त (असि) हैं, (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुप् छन्द से व्याख्यात हुए (छन्दः) स्वतन्त्र अर्थमात्र के समान प्रशंसित पत्नी को प्राप्त हुए (असि) हैं, वैसे मैं (त्वा) तुमको देखकर (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य-भूमि से अति शोभायमान प्रिया स्त्री को (परि, गृह्णामि) सब ओर से स्वीकार करता हूँ और (अन्तरिक्षेण) हाथ में जल लेकर प्रतिज्ञा कराई हुई को (उप, यच्छामि) स्त्रीत्व के साथ ग्रहण करता हूँ। हे (अश्विना) प्राण-अपान के तुल्य कार्यसाधक स्त्री-पुरुषो ! तुम दोनों भी वैसे ही वर्त्ता करो। हे (वसवः) पृथिवी आदि वसुवों के तुल्य प्रथम कक्षा के विद्वानो ! तुम लोग (स्वाहा) सत्या क्रिया से (मधुनः, सारघस्य) मक्खियों ने बनाये मधुरादि गुणयुक्त शहद और (घर्मम्) सुख पहुँचानेवाले यज्ञ की (पात) रक्षा करो। (सूर्य्यस्य) सूर्य्य के (वृष्टिवनये) वर्षा का विभाग करनेवाले (रश्मये) संशोधक किरण के लिये (वाट्) अच्छे प्रकार (यजत) सङ्गत होओ ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे शब्दों का अर्थों के साथ वाच्य-वाचक सम्बन्ध, सूर्य के साथ पृथिवी का, किरणों के साथ वर्षा का, यज्ञ के साथ यजमान और ऋत्विजों का सम्बन्ध है, वैसे ही विवाहित स्त्री-पुरुषों का सम्बन्ध होवे ॥६ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः स्त्रीपुरुषयोः कीदृशः सम्बन्धः स्यादित्याह ॥

अन्वय:

(गायत्रम्) गायत्रीछन्दसा प्रकाशितम् (छन्दः) स्वतन्त्राह्लादकरमिव (असि) (त्रैष्टुभम्) त्रिष्टुभा व्याख्यातमर्थजातम् (छन्दः) स्वतन्त्रमिव (असि) (द्यावापृथिवीभ्याम्) सूर्य्यभूमीभ्याम् (त्वा) त्वाम् (परि) सर्वतः (गृह्णामि) स्वीकरोमि (अन्तरिक्षेण) उदकेन सह प्रतिज्ञाताम् (उप, यच्छामि) गृह्णामि (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त (अश्विना) प्राणाऽपानाविव कार्यसाधकौ (मधुनः) मधुरादिगुणयुक्तस्य (सारघस्य) सरघाभिर्मधुमक्षिकाभिर्निर्मितस्य (घर्मम्) सुखवर्षकं यज्ञम् (पात) रक्षत (वसवः) पृथिव्यादय इव प्रथमविद्याकल्पाः (यजत) सङ्गच्छध्वम् (वाट्) सुष्ठु (स्वाहा) सत्यया क्रियया (सूर्य्यस्य) (रश्मये) शोधनाय (वृष्टिवनये) वृष्टेः संविभाजकाय ॥६ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे इन्द्र ! यथा त्वं गायत्रं छन्द इव हृद्यां स्त्रियं प्राप्तवानसि, त्रैष्टुभं छन्दः इव प्रशंसितां लब्धवानसि, तथाऽहं त्वा दृष्ट्वा द्यावापृथिवीभ्यां प्रियां स्त्रियं परिगृह्णाम्यन्तरिक्षेणोपयच्छामि। हे अश्विना ! स्त्रीपुरुषौ युवां तथैव वर्त्तेयाथाम्। हे वसवो विद्वांसो ! यूयं स्वाहा मधुनः सारघस्य घर्मं पात सूर्य्यस्य वृष्टिवनये रश्मये वाट् यजत ॥६ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा शब्दानामर्थैः सह वाच्यवाचकसम्बन्धः सूर्य्येण सह पृथिव्या रश्मिभिस्सह वृष्टेर्यज्ञेन सह यजमानस्यर्त्विजा चास्ति, तथैव विवाहितयोः स्त्रीपुरुषयोः सम्बन्धो भवतु ॥६ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा शब्दांचा अर्थांबरोबर वाच्यवाचक संबंध असतो. सूर्याचा पृथ्वीबरोबर असतो, पर्जन्याचा किरणांबरोबर असतो, यजमानांचा व ऋत्विजांचा संबंध यज्ञाबरोबर असतो तसा विवाहित स्री, पुरुषांचा संबंध असावा.